Farmer Protest: दबाव में सरकार लेकिन वापस नहीं ले रही है नए कानून?

आम तौर पर आत्मविश्वास से लबरेज रहने वाले भाजपा के शीर्ष नेता पहली बार बेबस दिख रहे हैं। पहले सरकार किसानों की मांगें मानने के लिए तैयार नहीं थी, लेकिन आंदोलन ने उसे अपना रुख नरम करने के लिए मजबूर किया है।

Farmer Protest: दबाव में सरकार लेकिन वापस नहीं ले रही है नए कानून?

नरेंद्र मोदी सरकार के लिए किसान आंदोलन सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। आम तौर पर आत्मविश्वास से लबरेज रहने वाले भाजपा के शीर्ष नेता पहली बार बेबस दिख रहे हैं। पहले सरकार किसानों की मांगें मानने के लिए तैयार नहीं थी, लेकिन आंदोलन ने उसे अपना रुख नरम करने के लिए मजबूर किया है। सचिव से लेकर मंत्री और अंत में गृह मंत्री अमित शाह तक, छह दौर की बातचीत में कोई समाधान नहीं निकल सका है। 


किसान 14 दिसंबर को देशभर में धरना प्रदर्शन करेंगे. इस पर भी अगर सरकार नहीं सुनी तो बीजेपी के मंत्रियों और नेताओं के घेराव किया जाएगा. कृषि कानून को वापस लेने की मांग पर किसान अड़े हैं. उनको लगता है कि जिस हित और हक के लिए वो 14 दिनों से खुले आसमान के नीचे सियासी घमासान को तैयार हैं, उनका वो हक पूरा नहीं हो रहा है. सरकार भले ही सुधारों की लिखित गारंटी दे रही हो, इसीलिए सरकार के प्रस्ताव को देखने के बाद उन्होंने आपस में बैठक की और निकले तो इस विमर्श के साथ कि सरकार का प्रस्ताव सिर्फ एक दबाव है और उस दबाव में आने वाले नहीं हैं. किसानों ने 14 दिन से दिल्ली के बॉर्डर पर जमे आंदोलन को और बढ़ाने का ऐलान कर दिया.

राजनीति पंडित बताते हैं कि कृषि कानूनों को वापस लेना मुमकिन नहीं है। दरअसल कृषि कानूनों की वजह से सरकार पहले ही बहुत कुछ खो चुकी है। सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी शिरोमणि अकाली दर अलग हो गई। उसके नेता प्रकाश सिंह बादल ने पद्म विभूषण सम्मान लौटा दिया है। बीजेपी साल 2022 में पंजाब विधानसभा चुनाव अकेले लड़ना चाहती है लेकिन उसकी छवि को काफी नुकसान पहुंच रहा है। पंजाब में तो बीजेपी की उम्मीदें कमजोर है ही। हरियाणा में भी उसकी सरकार एक कमजोर धागे पर टिकी है। हरियाणा में जेजेपी नेता दुष्यंत चौटाला पर खट्टर सरकार से समर्थन वापस लेने और प्रदर्शनकारी किसानों का समर्थन करने का दबाव है। खट्टर भी पार्टी नेताओं के दबाव का सामना कर रहे हैं। आंदोलन को खालिस्तानी रंग देने का दांव भी उल्टा पड़ गया। लगा था इससे आंदोलन में फूट पड़ जाएगी और पंजाब के किसान अलग-थलग पड़ जाएंगे। लेकिन इसका उल्टा हुआ। किसानों की नाराजगी बढ़ गई और उनका रुख पहले से भी अधिक सख्त हो गया। इससे ये बात तो साफ है कि मोदी सरकार किसान आंदोलन से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं थी। मोदी सरकार ने आंदोलन को कमतर आंका। प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को इतने बड़े विरोध का अंदाजा नहीं था। उन्हें लगा था कि थोड़ा-बहुत विरोध होगा और उसके बाद किसान नए कानूनों को स्वीकार कर लेंगे। उन्होंने कभी इस बात की कल्पना नहीं थी कि आंदोलनकारी किसान राजधानी का घेराव करेंगे और सरकार की बात ठुकरा देंगे। सरकार को अब एहसास होने लगा है कि किसानों को न तो बेवकूफ बनाया जा सकता है न ही उन्हें बांटा जा सकता है।

भाजपा के एक महासचिव ने कहा, “हम जितना देने के इच्छुक थे, उससे अधिक दे चुके हैं। अब किसानों को भी अपना रुख नरम करना चाहिए, ताकि बीच का कोई समाधान निकल सके।” दरअसल, सरकार उस शर्मिंदगी से बचना चाहती है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने के 15वें महीने ऐसा ही विवादास्पद भूमि अधिग्रहण अध्यादेश वापस लेने की घोषणा की थी। मोदी ने 30 अगस्त 2015 को ‘मन की बात’ में कहा था, “किसानों को भ्रमित किया गया और उनके भीतर डर पैदा किया गया।” सरकार कृषि कानूनों को लेकर भी वही तर्क दे रही है। प्रधानमंत्री ने कहा था, “मेरे लिए देश की हर आवाज महत्वपूर्ण है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण आवाज किसान की है। हमने एक अध्यादेश जारी किया था, कल 31 अगस्त को उसकी समय सीमा खत्म हो रही है। मैंने निर्णय लिया है कि उस अध्यादेश को खत्म होने दिया जाए।” तब कदम वापस खींचना मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ी शर्मिंदगी मानी जा रही थी। अब जब सरकार अधिक मजबूत है, वह उस शर्मिंदगी से बचना चाहती है।

आपको बता दें कि किसानों ने अपना मोर्चा तो संयुक्त बना रखा है लेकिन सरकार के भीतर से अलग-अलग आवाजें उठ रही हैं। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और वाणिज्य तथा खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री पीयूष गोयल के साथ वाणिज्य राज्यमंत्री सोम प्रकाश भी किसानों के साथ वार्ता में शामिल हुए। वे कहते हैं कि ऐसे आंदोलनों से देश को फायदा नहीं होगा। सोम प्रकाश स्वीकार करते हैं कि किसानों के साथ बातचीत आसान नहीं रही है। उन्हें लगता है कि किसानों को थोड़ा लचीलापन दिखाना चाहिए। कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद, कांग्रेस पर दोहरा मानदंड अपनाने का आरोप लगाते हैं। बहरहाल सरकार को उम्मीद है कि धीरे-धीरे किसान थक जाएंगे और तब उनका रुख नरम होगा। तब तक सरकार ने किसानों को नए कृषि कानूनों के फायदे बताने का अभियान चलाने का फैसला किया है।